भारतमाता की आजादी के लिए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमने वाले महान क्रांतिकारी भगत सिंह-राजगुरू-सुखदेव

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नई दिल्ली/ फरीदाबाद :अपने देश की स्वतंत्रता के लिए मृत्यु को भी आनंद से गले लगाने वाले महान क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरू एवं सुखदेव। 23 मार्च – भगतसिंह, राजगुरू एवं सुखदेव बलिदान दिवस। भारतमाता के लिए बलिदान करने वाले क्रांतिकारियों में भगत सिंह, राजगुरू एवं सुखदेव, इन तीनों के नाम एकत्र लिए जाते हैं । अंग्रेज अधिकारी सैंडर्स के अत्याचारों से मुक्त करने वाले इन तीनों को फांसी का दंड सुनाया गया था । ये तीनों वीर देशभक्ति पर गीत गाते-गाते आनंद से फांसी चढ गए । 23 मार्च को भगतसिंह, राजगुरू एवं सुखदेव का बलिदान दिन है, इस निमित्त यह लेख है।  तत्कालीन परिस्थिति एवं क्रांतिकारियों द्वारा उसपर निकाला गया उपाय* वर्ष 1928 में भारतीय गतिविधियों का अभ्यास करने के लिए इंग्लैंड से ‘सायमन कमीशन’ नामक शिष्टमंडल भारत में आया । भारत में सर्वत्र इस शिष्टमंडल का काले झंडे दिखाकर निषेध किया गया । उस समय लाला लाजपतराय के नेतृत्व में भव्य निषेध मोर्चा निकाला गया । संपूर्ण परिसर में ‘सायमन लौट जाओ’ के नारे गूंजने लगे ।

जनसमूह को हटाने के लिए आरक्षकों ने अमानुष लाठी प्रहार किए । इसमें लाला लाजपतराय घायल हो गए और उसमें ही उनका अंत हो गया । देशभक्त क्रांतिकारियों को यह सहन नहीं हुआ । क्रांतिकारियों ने लालाजी की मृत्यु के लिए जिम्मेदार अंग्रेज अधिकारी सैंडर्स को मार डालना तय किया । उस अनुसार लालाजी के प्रथम मासिक श्राद्ध के दिन भगतसिंह, राजगुरू एवं सुखदेव, ये तीनों ही वेश बदलकर आरक्षक (पुलिस) अधिकारी के निवासस्थान के पास पहुंचे । सैंडर्स को देखते ही सुखदेव ने संकेत किया । भगतसिंह और राजगुरू ने एक ही समय पर गोलियां चलाकर उसकी बलि ले ली और वहां से भाग निकले । अंग्रेज सरकार ने तीनों को पकडने के लिए अथक प्रयत्न किए । इसके साथ ही घोषणा भी करवा दी कि उन्हें पकडवानेवाले को पारितोषिक दिया जाएगा; परंतु काफी दिनों तक आरक्षकों को चकमा देते हुए तीनों क्रांतिकारक भूमिगत रहे । अंतत: एक दिन धोखे से वे पकडे गए । अंत में 23 मार्च 1931 को भारतमाता के इन तीनों सपूतों को फांसी दे दी गई । भगत सिंह का अल्प परिचय जन्म : भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब राज्य के एक सरदार (सिख) घराने में हुआ।

बचपन : भगत सिंह जब 6-7 वर्ष के थे, तब की यह बात है । एक बार उन्होंने किसान को खेत में गेहूं बोते देखा । उसे देख उनकी जिज्ञासा जागी । उन्होंने किसान से पूछा, ‘‘किसान दादा, आप ये गेहूं खेत में क्यों डाल रहे हैं ? किसान बोला, ‘‘बेटा, गेहूं बोने से उसके पौधे आएंगे और प्रत्येक पौधे में फिर ढेरों गेहूं की बालियां आएंगी ।’’ यह सुनकर नन्हा भगत बोला, ‘‘फिर यदि बंदूक की गोलियां खेत में बो दी जाएं, तो क्या उससे भी पौधे आएंगे ? उनमें भी बंदूकें आएंगी ? किसान ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हें गोलियां किसलिए चाहिए ?’’ तब क्षणभर का भी विलंब किए बिना आवेशपूर्ण स्वर में वह बोला,‘‘हिंदुस्थान का राज्य छीननेवाले अंग्रेजों को मारने के लिए ।’’

युवावस्था : पर्याप्त महाविद्यालयीन शिक्षा एवं घर की सर्व परिस्थिति अनुकूल होते हुए भी उन्होंने देशसेवा के लिए आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की और वह निभाई भी । वे ‘नौजवान भारत सभा’, ‘कीर्ति किसान पार्टी’ एवं ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन’ नामक संगठनों से संबंधित थे । प्रखर देश प्रेम दर्शानेवाले प्रसंग प्रसंग 1:  फांसी का दंड मिलने पर भगत सिंह अपनी मां से बोले, ‘‘मां, तुम चिंता क्यों करती हो ? मैं फांसी चढ भी जाऊं, तब भी अंग्रेजी सत्ता को यहां से उखाड फेंकने के लिए एक वर्ष के अंदर पुन: जन्म लूंगा !

प्रसंग 2 : फांसी चढने से पहले एक सहयोगी ने भगत सिंह से पूछा, ‘‘सरदार जी, फांसी चढ रहे हो । कोई अफसोस तो नहीं ? इस पर भगतसिंह ने जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इस मार्ग पर पहला कदम रखते ही ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा सर्वत्र पहुंचे, केवल यही एक विचार किया था । यह नारा मेरे करोडों देशबंधुओं के कंठ से जब निकलेगा, तब वह अंग्रेजों के साम्राज्य पर घाव करेगा और करता ही रहेगा । इस छोटी आयु का इससे बढकर क्या मोल होगा ?

शिवराम हरी राजगुरू जन्म : 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र राज्य के पुणे के निकट खेड में एक देशस्थ ब्राह्मण कुटुंब में शिवराम राजगुरू का जन्म हुआ । अचूक निशानेबाजी, उत्तम स्मरणशक्ति उन्हें जन्मतः प्राप्त थी । न जाने कितने ही ग्रंथ उन्हें कंठस्थ थे । वे हिंदुस्थान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य थे । राजगुरू की सहनशीलता दिखानेवाले प्रसंग

प्रसंग 1 : एक बार राजगुरू भट्टी के अंगारों पर अपने क्रांतिकारी मित्रों के लिए रोटियां सेंक रहे थे । तब एक सहक्रांतिकारक ने अंगारों की तपिश लगने पर भी उन्हें शांति से रोटियां सेंकते देख, उनकी प्रशंसा की । तब दूसरे मित्र ने जानबूझकर उन्हें चिढाने के लिए कहा, ‘‘यदि इसने कारागृह जाने पर वहां होनेवाली भयंकर यातनाएं सहन कर लीं, तब ही मैं इसे मानूंगा ।” अपनी सहनशीलता के विषय में शंका राजगुरु को अच्छी नहीं लगी । उन्होंने कढछी गरम कर, अपनी खुली छाती में लगा दी । छाती पर फोडा हो गया । उन्होंने पुन: एक बार फिर वैसा ही किया और हंसते-हंसते उस मित्र से बोले, अब तो इसकी निश्चिती हो गई न कि मैं कारागृह की यातानाएं सहने में सक्षम हूं । राजगुरू की सहनशीलता के विषय में संदेह करने पर मित्र को शर्म आई । मित्र ने क्षमा मांगते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी वास्तविक पहचान मुझे अब हुई ।’

प्रसंग 2 : एक धोखे से राजगुरु पकडे गए । लाहौर में उन पर अनगिनत अत्याचार किए गए । लाहौर की भीषण गर्मी में चारों ओर से तपती भट्टियां लगाकर उनके बीच राजगुरु को बिठाया गया । उन्हें मारा-पीटा । बर्फ की शिलाओं पर लिटाया गया । इंद्रीय मरोडी गई । तब भी वे स्थिर रहे । यह देख उनके सिर पर विष्ठा से भरी टोकरियां उडेली गईं । फौलादी मन के राजगुरु ने ये सभी अत्याचार सहन किए; परंतु अपने सहयोगियों के नाम नहीं बताए । प्रसंग 3 : फांसी चढने से पहले कारागृह के एक सहयोगी द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए राजगुरु बोले, ‘‘अरे, फांसी पर चढते ही हमारा प्रवास क्षणभर में समाप्त हो जाएगा; परंतु तुम सभी अलग-अलग दंड भुगतने की यात्रा पर निकले हो । तुम्हारी यह दुर्गम यात्रा अनेक वर्षाें तक चलती रहेगी, इसका मुझे दु:ख है । सुखदेव थापर जन्म: सुखदेव का जन्म पंजाब राज्य में, 15 मई 1907 को हुआ । भगत सिंह एवं राजगुरू के सहयोगी ही सुखदेव की प्रमुख पहचान

स्वतंत्रता की लडाई में सुखदेव का योगदान – सुखदेव भी हिंदुस्थान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कार्यकारी सदस्य थे । उन पर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के विचारों का प्रभाव था । लाहौर में नेशनल कॉलेज में उन्होंने भारत के वैभवशाली इतिहास और विश्व क्रांति के विषय में, रूस क्रांति से संबंधित साहित्य सामग्री का अध्ययन करने के लिए एक मंडल स्थापित किया । भगत सिंह, कॉम्रेड रामचंद्र एवं भगवतीचरण व्होरा के सहयोग से उन्होंने लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की । युवकों को स्वतंत्रता की लड़ाई में सहभागी होने के लिए उद्युक्त करना, शास्त्रीय दृष्टिकोण आत्मसात करना, साम्यवाद का विरोध करना और अस्पृश्यता निवारण, ये इस सभा के उद्देश्य थे । वर्ष 1929 में जब वे कारागृह में थे, तब कारागृह के सहयोगियों द्वारा हो रहे अनगिनत अत्याचार के विरोध में आरंभ की भूख हडताल में उनका सहभाग था ।

स्वतंत्रता के लिए मृत्यु को भी आनंद से गले लगानेवांले महान क्रांतिकारी 23 मार्च 1931 को लाहौर के मध्यवर्ती कारागृह में भगतसिंह, राजगुरू एवं सुखदेव को फांसी दी गई । वे हंसते-हंसते फांसी चढ गए । इन महान देशभक्तों को त्रिवार अभिवादन !