राष्ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में कायस्थ समाज की महिलाओं का योगदान का दायरा असीमित: (डा. नम्रता आनंद )
मामेंद्र कुमार शर्मा (संपादक डिस्कवरी न्यूज) : मंजिलें उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है। पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है। सिर्फ पुरुष ही समाजसेवा में अपना योगदान दे सकते हैं। इस मिथक को तोड़कर कायस्थ समाज की कई महिलाओं ने मिसाल पेश की है।राष्ट्र तभी सशक्त बन सकता है, जब उसका हर नागरिक सशक्त हो। इसमें भी महिलाओं की भूमिका ही सबसे आगे है। परिवार में एक मां के रूप में वह अपनी यह भूमिका अदा करती है।
राष्ट्र निर्माण में उसके इस योगदान का लंबा इतिहास रहा है। राष्ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में कायस्थ समाज की महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है तथापि देश के चहुंमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उसने सशक्त ढंग से पूरा किया है। अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता कायम रखते हुए वे पुरुषों से भी 4 कदम आगे निकल गई हैं। जहां एक ओर भारतीय महिलाएं विधि, अकादमिक, साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, मीडिया, उद्योग, आईटी सहित विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं, सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में महिलाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। कायस्थ कुलीन में जन्मीं कई महिलाएं हर क्षेत्र में अहम भूमिका निभाकर अपनी काबलियत का लोहा मनवा रही हैं। गृहस्थी से लेकर समाजसेवा और नौकरीपेशा में अपने कुशल नेतृत्व का परिचय दे रही हैं। यह महिलाओं का हौसला और जज्बा ही जो परिवार को संभालने के साथ-साथ समाजसेवा और नौकरी कर मुकाम हासिल कर रही हैं। महिलाएं परिवार बनाती है, परिवार घर बनाता है, घर समाज बनाता है और समाज ही देश बनाता है।
इसका सीधा सीधा अर्थ यही है की महिला का योगदान हर जगह है। महिला की क्षमता को नज़रअंदाज करके समाज की कल्पना करना व्यर्थ है। शिक्षा और महिला ससक्तिकरण के बिना परिवार, समाज और देश का विकास नहीं हो सकता। सुभद्रा कुमारी चौहान,महादेवी वर्मा,विंध्यावासनी देवी,शोभना समर्थ,नूतन,सुचित्रा सेन,सुषमा सेठ,शोभना कामत,शेफालिका वर्माअनामिका किशोर]शोभना नारायण,तनुजा,कनक लता बरूआ,तारा रानी श्रीवास्तव,शांति घोष,पुष्प लता दास,नीना रॉय आशा सहाय रमा देवी चौधरी जैसी कई कायस्थ् कुल में जन्मीं महिलाओं ने देश के सम्रग विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ कविता की चार पंक्तियों से पूरा देश आजादी की लड़ाई के लिए उद्वेलित हो गया था। उनकी एक ही कविता ‘झाँसी की रानी’ लोगों के कंठ का हार बन गई है। एक इसी कविता के बल पर वे हिंदी साहित्य में अमर हो गई हैं। सुभद्राकुमारी चौहान सिर्फ एक कवयित्री ही नहीं थीं, देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका अमूल्य योगदान रहा है। उत्तर भारत के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में सुभद्रा जी के व्यक्तित्व की गहरी छाप रही है। केवल 44 वर्ष की अल्पायु में किसी देश और जातीय अस्मिता को इतना विपुल योगदान देने वाली उनके जैसी दूसरी कोई महिला इतनी जल्दी याद नहीं आती है।सुभद्राकुमारी की कविता ‘झाँसी की रानी’ महाजीवन की महागाथा है। कुछ ही पंक्तियों की इस कविता में उन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य ही लिख दिया है। इस कविता में लोक जीवन से प्रेरणा लेकर लोक आस्थाओं से उधार लेकर जो एक मिथकीय संसार उन्होंने खड़ा किया है उससे ‘झाँसी की रानी’ के साथ सुभद्रा जी भी एक किंवदंती बन गई हैं। भारतीय इतिहास में यह शौर्यगीत सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया है।आज हम जिस धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण का संकल्प लेते हैं और सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं-सुभद्रा जी ने बहुत पहले अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति के इन प्राणतत्त्वों को रेखांकित कर दिया था।
महादेवी वर्मा को हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता है. ये एक महान कवियित्री होने के साथ-साथ हिंदी साहित्य जगत में एक बेहतरीन गद्य लेखिका के रुप में भी जानी जाती हैं.महादेवी वर्मा एक मशूहर कवियित्री और एक सुविख्यात लेखिका तो थी हीं, इसके साथ ही वे एक महान समाज सुधारक भी थीं। इन्होने महिलाओं के सशक्तिकरण पर विशेष जोर दिया और महिला शिक्षा को काफी बढ़ावा दिया था। महादेवी वर्मा जी ने महिलाओं को समाज में उनका अधिकार दिलवाने और उचित आदर-सम्मान दिलवाने के लिए कई महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम उठाए थे। शैशवावस्था से ही महादेवी वर्मा के हृदय में जीव मात्र के प्रति करुणा और दया की भावना थी। उन्हें ठण्डक में कूँ कूँ करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। यही कारण था कि पढाई पूरी करने के बाद ये सन 1929 में बौद्ध दीक्षा लेकर भिक्षुणी बनना चाहतीं थीं, लेकिन महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद समाज-सेवा में लग गईं।इनको चित्र बनाने का शौक भी बचपन से ही था। इस शौक की पूर्ति वे पृथ्वी पर कोयले आदि से चित्र उकेर कर करती थीं। इनके व्यक्तित्व में जो पीड़ा, करुणा, वेदना, विद्रोह, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है तथा अपने काव्य में इन्होंने जिन तरल सूक्ष्म तथा कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है, इन सब का बीज इनकी इसी अवस्था में पड़ चुका था जिसका बाद में अंकुरण तथा पल्लवन लगातार होता रहा। भारतीय सिनेमा जगत में नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने फ़िल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरागत विचार धारा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। विमल राय की फ़िल्म ‘सुजाता’ एवं ‘बंदिनी’ नूतन की यादगार फ़िल्में रही, जिसकेजरिये नूतन ने सामाजिक चेतना जगायी उफिल्म ‘सीमा’ से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। नूतन की मां शोभन समर्थ और बहन तनुजा ने भी कई सामाजिक फिल्मों में काम किया। देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार हो जानेवाले लोगों की पंक्ति में अक्सर हमारे इतिहास ने वीरांगनाओं को स्थान कम ही दिया है। सबसे कम उम्र में देश के लिए बलिदान देनेवाली एक वीरांगना भी हैं जिनका नाम है
कनकलता बरुआ।कनकलता का राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर झुकाव बचपन से था।कनकलता मृत्यु बहिनी से जुड़ गई। इस वक्त उनकी उम्र 18 साल से भी कम थी। 20 सितंबर, 1942 को एक गुप्त सभा में तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का फैसला किया गया। गहपुर थाने के चांरो तरफ, चारों दिशाओं से लोगों का जुलूस शामिल होता चला गया था। कनकलता दोनों हाथों से तिरंगा झंडा थामे उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। पुलिस थाने के इंचार्ज रेबती मोहन सोम क्रांतिकारियों के आंदोलन के लिए ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे।मृत्यु बहिनी का कारवां तय थाने के करीब आ गया। जुलूस में मौजूद लोगों के नारों से आकाश गूंजने लगा था। थाने के प्रभारी पीएम सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ और चेतावनी दी कि अगर जुलूस आगे बढ़ा तो अंजाम अच्छा नहीं होगा। कनकलता ने कहा कि उनका संघर्ष पुलिस से नहीं है, वे सिर्फ अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। और जुलूस नहीं रुका और पुलिस द्वारा जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी गई। पहली गोली कनकलता को छाती पर लगी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को जाकर लगी, जिससे तुंरत उनकी मौत हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियों की बौछार जारी रही। लेकिन इनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और पुलिस स्टेशन पर आखिरकार तिरंगा लहराया। इसी तरह कायस्थ कुल में जन्मीं कई महिलाओं ने सामाजिक चेतना जगाने का काम किया है।