Book Review: हलचल भरे इतिहास की थाह, ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’

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पिछली सदी के नौवें दशक के आखिर का समय भारत के लिए बहुत उथल-पुथल भरा रहा। मंडल-कमंडल से लेकर आर्थिक फिसलन के उस उलझन भरे दौर के विषय में जिज्ञासा स्वाभाविक है। ऐसे में पत्रकार एवं संपादक रहे संतोष भारतीय ने अपनी सद्यप्रकाशित पुस्तक -वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं- के माध्यम से उस दौर के एक सजीव चित्रण का प्रयास किया है। चूंकि लेखक स्वयं उस समय की तमाम घटनाओं के साक्षी रहे तो उनकी कलम से निकले हुए शब्द आकर्षण अवश्य पैदा करते हैं। पुस्तक में एक पत्रकार-संपादक के रूप में भारतीय और उस कालखंड से जुड़े अन्य किरदारों की कहानी समांतर रूप से चलती है। अपने रविवार के दिनों से लेकर चौथी दुनिया की स्थापना और इस दौरान पल-प्रतिपल बदलते घटनाक्रम पर भारतीय ने बेबाकी से लिखा है।

पुस्तक की शुरुआत ही -भविष्य के दो प्रधानमंत्रियों की अंतरंग मुलाकात- जैसे दिलचस्प पाठ से हुई है, जिसमें लेखक -मारुति ओमनी- कार में वीपी सिंह को चंद्रशेखर के भोंडसी स्थित आश्रम ले जाते हैं। यह मुलाकात एक नए भविष्य की आधारशिला रखने का निमित्त बनती है। इसी तरह उन्होंने बोफोर्स से लेकर जनमोर्चा के गठन, अमिताभ बच्चन के इस्तीफे के बाद हुए इलाहाबाद उपचुनाव, राम जन्मभूमि, चंद्रशेखर सरकार के गठन और उस दौरान कांग्रेस की उठापटक जैसे तमाम पहलुओं को छुआ है। साथ ही धीरूभाई अंबानी, अमिताभ बच्चन, रेखा और मोरारजी देसाई से लेकर रामकृष्ण हेगड़े जैसे दिग्गजों को भी एक-एक अध्याय समर्पित किया है।

लेखक ने अपने पत्रकार साथियों एमजे अकबर, सुरेंद्र प्रताप सिंह, विनोद दुआ और उदयन शर्मा आदि के साथ जुड़े प्रसंग भी साझा किए हैं। मसलन दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले -न्यूज लाइन- कार्यक्रम के लिए कैसे विनोद दुआ उनकी रपट के लिए रात भर संपादन की मशक्कत किया करते थे और बाद में उन्हेंं गोभी के पकौड़े खिलाने ले जाते थे। अपनी खबरों के प्रभाव से मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे को भी वह बहुत गर्व से बताते हैं। कमल मोरारका से पहली मुलाकात और उसी में -चौथी दुनिया- की तुरत-फुरत बनी योजना और जल्द ही उसके लांच की पार्टी का भी वह दिलचस्प उल्लेख करते हैं कि उसमें कौन-कौन शामिल हुए और किसे सबसे ज्यादा खुशी मिली।

वीपी सिंह और चंद्रशेखर को लेकर लेखक के मन में निस्संदेह एक नरम कोना अवश्य है। उनकी लेखनी से तो यह झलकता ही है, वह इन शब्दों में अपनी मंशा भी स्पष्ट कर देते हैं, -इतिहास कभी बेहद निर्मम हो जाता है। यदि उसने वीपी सिंह और चंद्रशेखर को दो साल भी सत्ता में रहने दिया होता तो शायद देश का इतिहास कुछ और होता।- इस महिमामंडन में कुछ अतिरेक तब लगने लगता है, जब वीपी सिंह की तुलना वह -गौतम बुद्ध- से करने लगते हैं। वहीं इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी के लिए अनुकूल और राजीव गांधी के लिए प्रतिकूल भावनाएं प्रदर्शित करने को लेकर भी कुछ भ्रम की स्थिति बनती है।

किताब में कई तथ्यात्मक गलतियां भी सालती हैं। जैसे लिखा गया है कि अमिताभ बच्चन गांधी परिवार के साथ छुट्टियां मनाने के लिए 1986 में अंडमान गए थे। यह गलत है, क्योंकि वे असल में लक्षद्वीप गए थे। उस पर -द ब्लू लैगून- शीर्षक से एक पत्रिका ने आवरण कथा भी प्रकाशित की थी। इसी तरह राजस्व खुफिया विभाग को एक जगह प्रवर्तन निदेशालय बताया गया है। चूंकि पुस्तक संस्मरण शैली में लिखी गई है तो उसका आधार विशुद्ध स्मृति आधारित है। किताब में एक भी फुट नोट या अंत में संदर्भिका का अभाव इसकी पुष्टि भी करता है। फिर भी अपने कथानक और रोचक शैली से यह पुस्तक पाठकों को कई अहम घटनाओं से परिचित कराती है। उनमें सबसे अहम तो यही थी कि प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए राजीव गांधी की सत्ता से विदाई कैसे हुई और उसके बाद क्या हुआ? यह किताब देश के संभवत: सबसे संवेदनशील दौर के दौरान बने हालात और उन्हेंं बदलने वाले फैसलों और उनके पीछे के निर्णायक पात्रों से भी रूबरू कराती है।

पुस्तक : वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं

लेखक : संतोष भारतीय

प्रकाशक : वारियर्स विक्ट्री

मूल्य : 999 रुपये